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Thursday 21 December 2017

जिंदगी मुझसे तेरा बोझ उठाते न बने

ये सुबह शाम कोई नाम भुलाते न बने
और बेआबरू होकर कहा जाते न बने

कौन समझेगा इस बेचैन उदासी का सबब
किसी को दास्तां अपनी सुनाते न बने

ऐसा लगता है कि बहुत दूर निकल आये हैं
जहाँ से चाह कर भी लौट के आते न बने

शौक़िया रहमों करम खुद को गवाँरा न हुआ
फिर भी जीने का नया ढंग बनाते न बने

कितनी मज़बूर हो गई हैं बेजुबान ग़ज़ल
गम को गाते न बने छिपाते न बने

बहुत थक चुकी हूं ज़माने के साथ चलने में
जिंदगी शकुंतला से तेरा बोझ उठाते न बने
©®@शकुंतला
फैज़ाबाद

16 comments:

  1. उम्दा बेहतरीन शकुंतला जी शायरी मे दर्द की एक मुकम्मल जगह है और वो आपकी गजल मे बखूबी देखने को मिलता है।
    साधुवाद।
    शुभ दिवस।

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    1. शुक्रिया कुसुम दी आपको मेरी छोटी सी कोशिश पसन्द आई

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    1. धन्यवाद रिंकी जी

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  3. बहुत खूब ग़ज़ल कही है आपने।

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  4. बहुत सुंदर रचना

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    1. शुक्रिया प्रिय नीतू जी हम धन्य हुए आपको मेरी ये नन्ही सी कोशिश पसन्द आई

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    1. शुक्रिया लोकेश जी

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  6. वाह्ह्ह...बहुत सुंदर रचना शंकुतला जी👌

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  7. बहुत आभार स्वेता जी

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  8. नमस्ते,
    आपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
    ( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में
    आज गुरूवार 04-01-2018 को प्रकाशित हुए 902 वें अंक में सम्मिलित की गयी है।
    चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर। खेद है कि आपको सूचना देने में देरी हुई।
    सधन्यवाद।

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    1. रविन्द्र जी बहुत आभार आपको मेरी रचना पसन्द आई
      मेरी रचना को इतना बड़ा सम्मान देने के लिए तहेदिल से शुक्रिया

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  9. दर्द छलक रहा आपकी ग़ज़ल में,
    बहुत अच्छा लिखा..पर अंतिम पंक्तियां मन को छू गई.. हमेशा खुश रहे..और लिखती रहें..
    नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं आपको..

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    1. बहुत आभार अनीता जी आपको मेरी रचना पसन्द आई

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