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Monday 8 January 2018

गुमसुम ख्यालात में खोई हैं

एक मुद्दत से जिंदगी नहीं सोई हैं
मेरी हालत पर शबनम भी बहुत रोई हैं

हर तरफ रेत के ज़र्रों पर है पानी के निशान
इस उल्फ़त में कोई रूह बहुत रोई हैं

इक परछाई बड़ी देर से घेरे है मुझे
ये ग़में इश्क़ ज़रा देख इधर कोई हैं

जिंदगी एक मकान ढूंढ़ रही हैं कब से
थक के वो मेरी पनाहों में अभी सोई हैं

आपने दिल से लगाया जब से शकु को
तब से गुमसुम ख्यालात में खोई हैं
©®@शकुंतला
फैज़ाबाद

10 comments:

  1. थक के मेरी पनाहों मे वो सोई है
    लाजवाब ख्याल उम्दा गजल।
    शुभ संध्या ।

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    1. बहुत आभार कुसुम दी

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  2. 👌👌👌👌👌👌👌वाह बहुत खूब शकुन्तला ज़ी
    उल्फत मै कोई रूह बहुत रोई हैँ .....बेहतरीन उन्वान
    रूहानी ग़ज़ल !

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    1. शुक्रिया इंदिरा जी

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  3. वाहःह
    बहुत खूब

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  4. बहुत आभार लोकेश जी

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  5. आपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है https://rakeshkirachanay.blogspot.in/2018/01/52.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!

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    1. बहुत आभार राकेश जी आपको मेरी रचना पसंद आई

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  6. हर तरफ रेत के ज़र्रों पर है पानी के निशान
    इस उल्फ़त में कोई रूह बहुत रोई हैं--- बहुत खूब शकु !!! सभी ;लाजवाब शेरों से सजी रचना के लिए आपको बधाई | सस्नेह मकर संक्रांति की मंगल कामनाएं |

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    1. प्रिय रेणु जी आपका बहुत आभार

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